मॉरीशस जिसे पूरे विश्व में लघु भारत के रूप में जाना जाता है। मॉरीशस भारतीय संस्कृति के वैश्विक स्वरूप के प्रसार का एक नमूना है । भारतीय संस्कृति के प्रसार के लिए भारतीय गिरमिटिया मजदूरों का विशेष योगदान है । भारतीय गिरमिटिया मजदूरों का मॉरीशस में प्रथम प्रवासन 2 नवम्बर 1834 को हुआ । जिस जगह पर भारतीयों के प्रथम चरण पड़े, उन्हें आज अप्रवासी घाट के नाम से जाना जाता है । इस घाट को विश्व के प्रमुख सांस्कृतिक विरासत के रुप में संरक्षित है ।

मॉरीशस में आने वाले प्रथम यूरोपीय देश पुर्तगाली थे। लेकिन इन्होनें यहां विशेष रूचि नहीं ली, इसके बाद डचों का आगमन हुआ और हॉलैंड के राजकुमार मौरिस वैन नासाउ के सम्मान में इस द्वीप का नाम मौरिस डी नासाउ या मॉरिशस रखा गया। डचों ने मॉरीशस देश को समृद्ध बनाया और इस द्वीप को मानव सहित विभिन्न जीव जंतुओ, पेड़ पौधों को विकसित करने में भूमिका निभाई । उन्होंने मेडागास्कर से दासों को लाकर यहां काम करवाना प्रारम्भ किया। और प्राकृतिक कारणों से इस द्वीप को छोड़ दिया ।1715 ईस्वी में, फ्रांसिसीयों ने इस द्वीप पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया और इस द्वीप का नाम आय्ल डे फ्रांस (Isle de France) रखा। 1810 से 15 के मध्य फ्रांसीसियों को पराजित कर अंग्रेजो ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया ।

भारतीयों का मॉरीशस में प्रथम आगमन फ्रांस के शासनकाल में माना जाता है, कहा जाता है कि फ्रांसीसियों ने पांडेचरी से कुछ मजदूरों को भारत लाया था, जिनसे उन्होंने अपने किले और घर बनाने में मदद ली ।1833 में पूरे विश्व में दास प्रथा पर समाप्ति के पश्चात अंग्रेजो के औपनिवेशिक देशों में मजदूरों की कमी हो गई । जिसके कारण गन्ना और चावल की खेती के लिए भारतीय मजदूरों को एक समझौते के अंतर्गत लाया गया , यह समझौता गिरमिटिया प्रथा के रूप में जानी जाती है।

गिरमिटिया प्रथा के तहत मजदूरों को पांच से सात वर्ष के लिए भर्ती किया जाता था। यहां इन्हें वेतन के रूप में 5 रूपय प्रति माह तथा राशन के नाम पर दो पाउंड चावल, आधा पाउंड ‘दाल’, 56.6 ग्राम नारियल तेल, 56.6 ग्राम सरसों का तेल दिया जाता था । काम करने के लिए भी 7 घंटे निर्धारित थे लेकिन वास्तविक रूप से ये सभी सुविधाए गिरमिटिया मजदूरों को नहीं दी जाती थी। बल्कि इनके साथ दासों जैसा व्यवहार किया गया। ह्यूज टिंकर ने गिरमिटिया प्रथा को नव दास प्रथा कहा । इन मजदूरों की भर्ती दलालों के माध्यम से की जाती थी जो भोले भाले भारतीयों को बहला फुसलाकर मजदूर के रूप में भर्ती कर देते थे ।

सबसे पहले दो नवंबर, 1834 को एमवी एटलस नामक जहाज भारत से मजदूरों का पहला जत्था लेकर मॉरीशस पहुंचा। और आधुनिक अप्रवासी घाट की 16 सीढ़ियों को पर चढ़कर ये 36 मजदूर एक नए भारत के निर्माण के लिए पहुंचे । लगभग 4.5 लाख मजदूरों का अकल्पनीय कष्ट, पीड़ा और देश छोड़ने की वेदना सहते हुए मॉरीशस के इस अप्रवासी घाट पर पहुंचे। तमाम वेदना को सहते हुए भी उन्होंने एक लघु भारत का निर्माण किया । आज सम्पूर्ण मॉरीशस में भारत की संस्कृति के विभिन्न स्वरूपों का दर्शन होता है । बिना पत्राचार , मुलाकात के इतने कष्ट के बावजूद भी आज भारतीय संस्कृति अपने अस्तित्व के साथ विद्यमान है ।
आज मॉरीशस अपने पूर्वजों के आगमन की 188वी वर्षगांठ मना रहा है और उनको याद कर रहा है । आप्रवासी घाट सबसे भव्य ढंग से सभी प्रतिकूल परिस्थितियों में मानवीय भावना की विजय को दर्शाता है। यह इन जीवंत पुरूषों एवं महिलाओं की स्मृति के स्मारक के रूप में हैं। हम सभी अपने उन पूर्वजों को याद करते है कि जो अपनो को छोड़कर हिन्द महासागर के उस तट पर पहुंचे जहां उन्होंने अपने एक नए भविष्य का निर्माण किया । आज भी मॉरीशस के लोगो ने अपने 188 साल के पुराने अतीत को वर्तमान में भी जीवंत रखा है । इन पूर्वजों के बारे में मॉरिशस के जाने माने साहित्यकार अभिमन्यु अनत की कविता यहां के आप्रवासी घाट की एक दीवार पर उद्धृत है।
आज अचानक
हिन्द महासागर की लहरों से तैर कर आई
गंगा की स्वर-लहरी को सुन
फिर याद आ गया मुझे वह काला इतिहास
उसका बिसारा हुआ
वह अनजान आप्रवासी…
बहा-बहाकर लाल पसीना
वह पहला गिरमिटिया इस माटी का बेटा
जो मेरा भी अपना था, तेरा भी अपना ।
– अजीत कुमार राय, असिस्टेंट प्रोफेसर, सरदार बल्लभ भाई पटेल कॉलेज